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आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं
सामान सौ बरस का है पल की खबर नहीं
-हैरत इलाहाबादी
ज़िन्दगी ज़िंदादिली का नाम है
मुर्दा दिल क्या ख़ाक जिया करते हैं
-नासिख लखनवी
करीब है यारो रोज़े-महशर, छुपेगा कुश्तों का खून क्योंकर
जो चुप रहेगी ज़ुबाने–खंजर, लहू पुकारेगा आस्तीं का
रोज़े-महशर = प्रलय का दिन
-अमीर मीनाई
कैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो
खूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो
(कैस = मजनू)
-मियांदाद सय्याह (मिर्ज़ा ग़ालिब के शागिर्द)
बड़े गौर से सुन रहा था जमाना
तुम्ही सो गये दास्तां कहते कहते
-साक़िब लखनवी
हम तालिबे-शोहरत हैं, हमें नंग से क्या काम
बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा
-नवाब मुहम्मद मुस्तफा खान शेफ़्ता
खंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम अमीर
सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है
-अमीर मीनाई
उम्र सारी तो कटी इश्के-बुतां में मोमिन
आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमां होंगे
-हकीम मोमिन खां मोमिन
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता
-अकबर इलाहाबादी
लोग टूट जाते हैं एक घर के बनाने में,
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में.
-बशीर बद्र
कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊंगा
मैं तो दरिया हूं समन्दर में उतर जाऊंगा
-अहमद नदीम क़ासमी
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले,
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है.
-अल्लामा इकबाल
चल साथ कि हसरतें दिल-ए-महरूम से निकले
आशिक का जनाज़ा है, ज़रा धूम से निकले
-मुहम्मद अली फिदवी
ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजै
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
-जिगर मुरादाबादी
यहां लिबास की कीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़ा दे, शराब कम कर दे
-बशीर बद्र
बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था
हर शाख पे उल्लू बैठें हैं अंजाम ऐ गुलिस्तां क्या होगा
-रियासत हुसैन रिजवी उर्फ ‘शौक बहराइची’
कुछ ना कहने से भी छिन जाता हैं ऐजाज़े सुखन
जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती हैं..
– मुजफ्फर वारसी.